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Officers Times > OT Exclusive > “नई शिक्षा : अनदेखे तनाव और देखी दुकानदारी के बीच दुनियादारी की सीख”
OT Exclusive

“नई शिक्षा : अनदेखे तनाव और देखी दुकानदारी के बीच दुनियादारी की सीख”

Officers Times
Last updated: 2023/11/30 at 7:15 PM
By Officers Times
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13 Min Read
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गुरु पूर्णिमा ग्रहण की छाया के साथ बीत गयी है। 

हाल में निजी विद्यालयों के अभिभावक बहुत उद्वेलित हैं, 

ऑनलाइन पढ़ाई को लेकर, फीस को लेकर. 

बीसवीं सदी के आरंभ में ही पैट्रिक हैक ने कहा था- 

स्कूल नये तरह के शोषण केंद्र व यातना शिविर हैं. 

स्कूल पैरेंट्स की लूट के माफिया भी हैं और व्यक्तित्व हत्या के कन्सेंट्रेशन कैम्प भी हैं. 

स्कूल दो तरह के होते हैं, 

एक सरकारी, जिसमें पढ़ाई भी कम होती है और बच्चों पर प्रेशर भी कम होता है। 

दूसरे प्राइवेट, जिनमें पढ़ाई से दोगुना प्रेशर होता है, बच्चों और पैरेंट्स दोनों पर और पढ़ाई का सोलह गुना लूट होती है, पढ़ाई की चीजों के नाम पर, 

यूनिफॉर्म, बैग्स, बुक्स, कॉपीज, टिफिन बॉक्स, एन्युअल फंक्शन की ड्रेसेज, फेट, पिकनिक, टूर पैकेजेज के नाम पर. 

और वे स्टैंडर्ड बन गए हैं, मानक. 

प्रेशर व लूट दोनों साथ-साथ चलती है। 

टीचर्स भी प्रेशर में हैं, प्राइवेट स्कूलों में, 

क्योंकि ज्यादातर के मालिक टीचर नहीं, सौदागर हैं, 

वे बिल्डर, कॉलोनाइजर, भू-माफिया, शराब माफिया आदि कुछ भी हो सकते हैं, टीचर नहीं। 

किसी का व्यंग्य है, 

इन बड़े प्राइवेट स्कूलों में टीचर्स को अच्छा क्रॉफ्ट टीचर बनाया जाता है। कैसे प्रिंट आउट निकालें, कैसे कट-पेस्ट करें, कैसे होम वर्क शीट्स व इवैल्यूएशन फॉर्मेट्स चिपकाएँ, इसमें पर्याप्त समय लग जाता है। कुछ समय मिलता है, तो पढ़ाते भी हैं, कभी-कभी कुछ समझा भी देते हैं, यदि उन्हें समझ में आ गया होता है। 

व्यंग्य सदा सत्य नहीं होते, परंतु वे सत्यांश अवश्य लिए होते हैं। निजी टीचर अधिक मेहनत करते हैं, अधिक अप टू डेट रहते हैं। परंतु वे छात्रों को अप टू डेट रखने के लिए दोगुनी मेहनत भी करा रहे होते हैं। बच्चों को होमवर्क देकर, पैरेंट्स को इंगेज करा कर. 

सरकारी स्कूल अपनी दुर्दशा से ग्रस्त हैं, 

उनमें वह खूबसूरत लुक-फील ही नहीं है. 

अनेक जगहों पर टीचर भी पचीस से पचास परसेंट तक अब्सेंट रहते हैं, बिना बताए. 

जो प्रेजेंट हैं, उनमें भी पचीस से पचास परसेंट तक पढ़ाने से ज्यादा गप्प व अन्य व्हाट्सऐपी गतिविधियों में संलग्न हो सकते हैं। 

अनेक हैं, जो अपने को आदर्श शिक्षक बनाये हुए हैं, 

अत्यल्प संसाधनों में भी समर्पण की वह अलख जगाए हुए हैं कि नतमस्तक होने को मन चाहे, परंतु स्थानांतरण से सुरक्षा नहीं, प्रोत्साहन की व्यवस्था नहीं. 

सरकारी तंत्र में शिक्षा विभाग की अपनी समस्याएँ हैं- 

-पलायन की, बच्चों के 

-स्थानांतरण की, शिक्षकों के 

-प्रशासन की, ठीक प्रबंधन न होने के 

-निरीक्षण की, समय पर संचालन न होने के 

-समयानुसार परिवर्तन की, मध्यम व उच्च वर्ग के हिंदी माध्यम में न पढ़ाने के 

यह अंग्रेजी माध्यम स्वयं में एक समस्या बन गया है। 

हमें समझा दिया गया है कि अंग्रेजी न पढ़ी, 

सारे विषयों की अंग्रेजी भाषा में न पढ़ाई की, 

तो पढ़ाई का स्तर ही नहीं। 

यूरोप, अमेरिका अंग्रेजी पढ़ कर ही इतने आगे बढ़े. 

कितनी बड़ी बात है कि अंग्रेज का बच्चा बचपन से ही अंग्रेजी बोलने जानता है और हम हैं कि पढ़-लिख कर भी ठीक से बोलना नहीं जानते. 

किसी की मातृभाषा हिंदी हो तो हो, 

पितृभाषा तो अंग्रेजी ही बननी है। 

अंग्रेजी पढ़ते ही सब ठीक हो जाएगा। 

ये जो जापान, जर्मनी या चीन वाले जाने कैसे कम अंग्रेजी जानकर भी आगे बढ़ गए. 

और हम अंग्रेजी पढ़कर भी बहुत नहीं बढ़े. 

सरकारी स्कूलों में हिंदी माध्यम है। 

राजस्थान में हिंदी करना या हिंदी होना एक मुहावरा है, 

किसी को लज्जित करने या किसी की दुर्गति होने के अर्थ में. 

मान सकते हैं कि इस मुहावरे के निर्माण में हिंदी माध्यम के विद्यालयों की भूमिका नहीं रही होगी, वे बस चरितार्थ करने के सरल बहाने बन गए हों। 

सरकारी विद्यालयों का कुशल न होना अनेक व्याधियों की जड़ है। लोग शहरों की ओर भाग रहे हैं, दड़बों में किराए पर रह रहे हैं, घंटों सड़क की ट्रैफिक जाम में बिता रहे हैं, तो केवल वजह यह नहीं कि वे बेहतर सड़क, बिजली, मॉल, लाइफस्टाइल चाह रहे हैं, यह भी कि अगली पीढ़ी के पढ़ने के लिए गाँव व कस्बे में समुचित विकल्प नहीं है। जब तक सरकार पर्याप्त अंग्रेजी माध्यम या बाइलिंगुअल सपोर्ट वाले विद्यालय नहीं खोलेगी, लोग निजी व्यवस्था के हाथों बँधते रहेंगे। 

जो भी हो, आज दोनों की स्थिति अच्छी नहीं. किसी की तुलनात्मक उक्ति है- 

“मैं जब भी अपने पुराने सरकारी स्कूल के पास से गुजरता हूँ,

मुझे हमेशा लगता है-

मुझे बनाने में खुद टूट सा गया है.

मैं जब भी अपने बेटे के प्राइवेट स्कूल के पास से गुजरता हूँ, 

मुझे हमेशा लगता है-

मुझे तोड़ कर खुद बनता ही जा रहा है.” 

सरकारी स्कूलों में अकर्मण्यता का बोलबाला ज्यादा है, 

तो निजी में व्ययाधिक्य का, जो परोक्ष रूप से लूट नहीं भी, तो ठगी की सीमा तक तो जा ही सकता है। 

दोनों में कुछ ठीक होंगे, लेकिन कुछ ही. 

जितनी दूर तक प्राइवेट स्कूलों की दुनिया है, 

बच्चों की पढ़ाई पर खर्च में पढ़ाई की चीजों का खर्च बेतहाशा जुड़ता जा रहा है. 

ये जो पैरेंट्स हैं, दुर्योग से माता-पिता भी होते हैं, 

अपना पेट काटकर, तमाम यातनाएं सहकर भी उन्हें बड़ा बनाना चाहते हैं। 

वे अनगिनत आर्थिक परेशानियों को सहते हुए भी अपनी पूरी कोशिश करते हैं कि बच्चे को किसी तरह की कमी न हो.

बच्चे फसल की तरह नहीं होते कि एक मौसम भर में पक जाएँ. 

वे वृक्ष की तरह होते हैं, बड़े होने में दस बीस साल लेते हैं। 

परिणाम तो तब पता चलेगा कि पढ़ाया सो काम आया कि नहीं. इसलिए कोई रिस्क नहीं लेता. 

दुनिया बदल रही है, पहले से कई गुना तेज, 

सो माता-पिता चिंतित हैं, कहीं संतति की परवरिश में कोई चूक न रह जाए. 

आत्मा की, हृदय की बात सीखे, न सीखे, 

देह की, पेट की बात तो सीख ही लेनी चाहिए। 

तुलसीदास की राम चरित मानस के उत्तर कांड में कोई उक्ति है, 

कलियुग के निदर्शन में- 

“मातु पिता बालकन्ह बोलावहिं ।

उदर भरइ सोइ ज्ञान सिखावहिं ।।”

जैसे जैसे उम्र व दर्जे बढ़ते जाते हैं, 

उदर भरइ सोइ ज्ञान की तलब बढ़ती जाती है। 

इसलिए कॉलेज जो पढ़ा रहे हैं, 

उन पर दबाव है कि 

वे कैरियर के अनुकूल पढ़ाएँ. 

अब वे स्वयं भी जब इस अनुकूल न पढ़े, 

तो उन्हें कैसे क्या पढ़ाएँगे. 

हर चीज़ कैरियर के अनुकूल ही क्यों हो, 

शोध अनुकूल क्यों न हो, 

संधान अनुकूल क्यों न हो? 

वैसे भी लक्ष्मी की आकांक्षा लिए संस्थानों में सरस्वती कितनी बसती होंगी! 

पुराने जमाने में कोई लोकोक्ति थी, शायद घाघ-भड्डरी की रची- 

उत्तम खेती, मध्यम बान। 

नीच चाकरी, भीख निदान।। 

काम करना हो तो सर्वोत्तम है कि खेती करो, 

मध्यम है कि व्यवसाय करो, 

चाकरी या नौकरी तो नीच है, अधम है, निषिद्ध सी हो रहे, यही उचित है। 

युग बदल गया। नौकरी सर्वश्रेष्ठ मान ली गई। 

जिस व्यवस्था में स्वयं की उद्यमिता कम हो, संधान की प्रवृत्ति कम हो, साहसपूर्वक कुछ करने का भाव कम हो, प्रशासनिक व्यवस्था में भ्रष्टाचार बहुत हो, उसमें नौकरी अधम से उच्चतम पहुंच गई हो, तो कोई विस्मय नहीं. 

गुरु की प्रशस्ति से ग्रंथ भरे पड़े हैं। 

शिक्षक उन्हें पढ़कर आत्ममुग्ध हो सकते हैं, 

यद्यपि उन सूक्तियों में अधिकांश न उनके लिए हैं, 

न ही अधिकांश शिक्षक किसी सूक्ति प्रशस्ति के योग्य हैं। 

वे हमारे भ्रष्ट हो चुके प्रशासनिक तंत्र के ही निकृष्ट रूप भर हैं। 

ऐसा तो नितांत सत्य की तरह है कि 

शिक्षा के क्षेत्र में अधिकांश वही हैं, 

जो शिक्षा के क्षेत्र में उत्कृष्ट नहीं है, 

शिक्षण के क्षेत्र में भी, 

आचार के क्षेत्र में भी, विचार के क्षेत्र में भी. 

शिक्षक उसे बनना चाहिए, जिसमें ज्ञान के प्रति प्रेम हो,

प्रशासक उसे बनना चाहिए, जिसमें सेवा की प्रवृत्ति हो. 

सच यही है कि इनमें ज्यादातर ऐसे नहीं हैं। 

और इसलिए इनमें ज्यादातर श्रद्धा या सम्मान के पात्र नहीं हैं। 

लोग कोसते हैं, 

बड़ा स्कूल बड़ी लूट जानता है, 

फिर वह लूट आगे इन्वेस्ट होती है। 

फिर वह स्कूल और बड़ा होता जाता है,

फिर हमारी आंखों में चकाचौंध और भरती जाती है। 

लगने लगता है, 

स्कूल जब इतना बड़ा है, 

तो हमारे बच्चों को जाने कितना बड़ा बना देंगे। 

बड़े स्कूल हों या छोटे स्कूल, 

वे पढ़ाने से ज्यादा नाम लिखाने के लिए हैं। 

पैरेंट्स न पढ़ाएँ, तो सारी पढ़ाई दो कौड़ी की हो जाए. 

स्कूल अनिवार्य भलाई के लिए थे, वे अनिवार्य बुराई बन चुके हैं। 

हम शिक्षा की व्यवस्था को कोस सकते हैं, लेकिन समाज व मानस की उक्त व्यवस्था को जब तक न बदलेंगे, 

शिक्षा की व्यवस्था में सुधार संभव नहीं है। 

कोसने वाले भी इस व्यवस्था से मुक्त होने का साहस नहीं कर सकते, यही इसकी विडंबना है। 

पुरानी व्यवस्था में भी सब अच्छा ही न रहा होगा। 

जब हम पढ़ते थे, तब पाठशाला पीटशाला अधिक होती थी। 

बहुत पहले गुरुकुल होते थे, परंतु वे भी सर्वसुलभ हों, 

इसमें संदेह लगता है। 

ऐसे जन तब भी रहे होंगे, तभी खिन्न कबीर कहते हैं-

“जाका गुरु है अंधला, चेला खरा निरंध. 

अंधे अंधनि ठेलिया, दोऊ कूप पडंत.”

तब विषय कम थे, दबाव कम था। 

ज्ञान से ज्यादा बल कौशल में था। 

वह भी भारत की जाति व्यवस्था में वैसे ही पुश्तैनी रूप में चलता, पलता और विकसता जाता था। जाति व्यवस्था टूटने लगी, तो अनजाने में पुश्तैनी हुनर भी खत्म होने को आए, वरना तो तब घर व खानदान ही आईटीआई हुआ करते थे। 

आज पढ़ाने पर बहुत बल है। 

नयी व्यवस्था जिसे पठनीय मानती है, 

उसे पाठ्य बनाने का जतन करती है। 

परंतु समुचित शिक्षा तो वह है, 

जो पाठ्य को पठनीय बना दे. 

समुचित शिक्षक वह है, 

जो जितनी शिक्षा दे, उतनी सीख भी दे, 

शब्दों से भी, आचार से भी. 

सब शिक्षक गुरु नहीं बन सकते, 

क्योंकि वह एक आध्यात्मिक उपलब्धि है, 

लेकिन सब शिक्षक आचार्य तो बन ही सकते हैं, 

कि आचार से शिक्षा न दी, तो वह सीख कहाँ, 

शब्द भर है। 

ज्ञान के लिए कई बार वेद नहीं, वेदना चाहिए, 

वह शिक्षक के मन न हुई, तो कोई विस्मय नहीं, 

क्योंकि उनमें अधिकतर वे जन हैं, 

जो किसी अन्य जगह जाना चाहते थे, 

या तो जा न सके या चुने न जा सके. 

लेकिन वह वेदना छात्र में भी होनी चाहिए, 

जिज्ञासा के रूप में. 

वह जिज्ञासा रही, तो बिना शिक्षक भी वह बेहतर शिक्षा पा जाएगा, 

न रही, तो अच्छा शिक्षक भी उसे कुछ बहुत शिक्षा न दे पाएगा। 

इसीलिए कहते हैं, 

स्वयं का शिक्षक बनकर 

स्वयं को शिक्षा देना ही सर्वश्रेष्ठ ज्ञान है !

– K K Pathak, IAS, Rajasthan

Officers Times November 30, 2023 July 20, 2020
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