कौन जगत् में किसी चोट का फाहा बनता है।
जो सलीब पर है, बस वही मसीहा बनता है।।
यह जग क्रंदन की करुणा का सागर है सारा,
अश्रुपान कर मन चातक कहाँ पपीहा बनता है।
दो शब्द सहानुभूति के बोलें, रख हाथ हथेली में,
कुछ पल का स्पर्श यही, आह से आहा बनता है।
कुछ अंतस् होते ही हैं इतने निर्मल और सरस,
संग में जिनके अनचाहा भी मनचाहा बनता है।
पीड़ा असुविधा लाती है, दुविधा और जगाती है,
है कौन राह ऐसी, पथ जहाँ न दोराहा बनता है।
मन, वचन या कर्म ही, चोट का फाहा बनता है।
जो नहीं सलीब पर, वह कहाँ मसीहा बनता है।।
– आईएएस कृष्ण कांत पाठक, वित्त सचिव, राजस्थान