किसी की आँखों में झाँक सको जो, पाओगे उसमें कोई प्यास।
या वह होगी तृप्त हुई, तृषित हुई या फिर लिए बुझी सी आस।।
कम ही होता है, जब नयनों में दीप-सा जलता है, देखना तब,
कभी चहकती मिले कहीं, लेकर जैसे कोई भूला स्मित हास।
देखा है खिलते और महकते फूलों को, चहकते विहगों को भी,
प्रियदर्शन पर जब दृग विहंग बने, दृष्टि दमकती भर उल्लास।
पाने की हो दृप्त कामना, पर अदृष्ट न पूरा कर पाए, यह चिंता,
किसने देखा कंपित पुतली को झँपती पलकों का रास-विलास।
समय कभी लीन ध्यान में हो थिर जाए, यह सदा असंभव है,
त्राटक सा सध जाए सहसा ही, काश कभी हो ये बिना प्रयास।
भाव का सागर भी भवसागर सा ही है, उमगता गिरता है,
जो बिंदास छलकता चलता था, क्या अब वही नहीं उदास।
यह दृष्टि हमारी और तुम्हारी, सृष्टि सी ही तो है, चक्रावर्ती है,
हम सबने देखा है नयनों में, सपनों में, अपनों में ह्रास-विकास।
नभ, नीड, डाल पर जगह बदलते देखा आँख के पाँखी को,
पर जहाज का पंछी लौट जहाज पर आयेगा, यह है विश्वास।
उसकी आँखों में झाँक देखना, जिसमें बसी कभी थी तेरी प्यास।
जो ना तृप्त हुई, तृषित रही जीती, लेकर तेरी ही बुझी सी आस।।
– आईएएस कृष्ण कांत पाठक, वित्त सचिव, राजस्थान