वह जो पल-पल बीत रहा, वह समय नहीं, अपना ही वय है।
जग हो जीवन हो, जड़ हो, चेतन हो, अंत सब ही का तय है।।
आना-जाना, पाना-खोना, जन्मना-मिटना सब प्रत्यक्ष ही है,
क्या दर्शन, क्या दृष्टि, विदित ही सृजन के संग जुड़ा प्रलय है।
जीवन कहता, दु:ख जाने का, दर्शन कहता, दु:ख आने का,
सब ही जब यात्रा में, फिर नहीं ठहरने का किसको भय है।
हृदय पर्ण सा डोल रहा हो, कुछ अस्फुट स्वर में बोल रहा हो,
कंपित हो तो हो, लगे कि गुंजित आनंदित अधरों पर लय है।
हर ऊषा की निशा है अपनी, हर प्रभात की रात सनातन है,
यह मिलन है संध्या सा, गोधूलि भोर में तमालोक-प्रणय है।
मेरी चिंतनधारा बोल रही है, गुंझर अंतर्मन के खोल रही है,
जो अभिव्यक्त हुआ, खो गया, जो मौन रहा, मन को प्रिय है।
बहुत सँजोया, पर क्रमश: खोया ही, यही प्रकृति है नियति भी,
हो मुमुर्षु, हो मुमुक्षु, सब छोड़ सहर्ष जाने में ही अंतिम जय है।
वह जो पल-पल रीत रहा, वह जीवन नहीं, जीवन की वय है।
स्मृति हो, संपत्ति हो, कृति हो, व्यय होना सब ही का तय है।।
– आईएएस कृष्ण कांत पाठक, वित्त सचिव, राजस्थान