स्मृति कोई कैसे हर रात बनी, दर्शन तो बस एक दिवस का।
उस पर एक विडंबना यह कि विदित नहीं नाम भी उसका।।
लग सकता है, प्रीति कोई है, सहसा जुड़ आयी है पथ पर,
कल्पना साहित्य हृदय की है, भाव है दर्शनमय मानस का।
ना रे बंधु, प्रेम हृदय का होकर भी, जन्मांतर तक जाकर भी,
वह आत्मा का अंश नहीं, वह उद्भव भी तो नहीं अंतस् का।
अनुराग कहीं कोहबर का गेरु बने, कहीं चौक वह व्रत का,
नहीं निशा निमंत्रण यह, यह तो अहर्निश दीप अमावस का।
प्रकृति ही मुझे बुलाती, कुछ निर्मल होने को कह फुसलाती,
मैं पवन झकोरा बन घूमूँ, फुहार बने कोई इस पावस का।
स्मृति जो मेरी हर रात बनी, दर्शन वह किस एक दिवस का।
एक सुमिरनी चलती जाती, जपती बस एक नाम ही उसका।।
– आईएएस कृष्ण कांत पाठक, वित्त सचिव, राजस्थान