मेरे पर्वत! तू है मेरुतुंग, तुममें ही तो आत्मा का परम शिखर।
मेरे मरुधर! तू है वितान, जिसमें माटी का कण-कण रहा बिखर।।
मैंने हिम में तप कर ही देखा है, जमने की परीक्षा शेष रही,
गिरि-कन्दर, पर्वत-प्रांतर सबमें बस मेरा हृदय गया निखर।।
ये स्वर्णिम सिकता है, मिट्टी की काया में जुड़ती बनी सुनहरी,
निर्झर की प्यास लिए चला था, मरुमरीचिका में गया ठहर।।
वनस्पति-गण वृक्षों के बन बृहस्पति गुरुज्ञान पढ़ाते हैं कब से,
मेरी ओषधि! ये तेरी हरीतिमा में ही तो स्वस्थ हो गया सुधर।।
वीचियाँ किस अनंत से आती हैं, मिल अनंत में मिट जाती हैं,
मेरे सागर! तेरे विस्तार में ही तो चेतना उमगती ये बनी लहर।।
लहर, सागर, मरुधर, गिरिधर, वन, गिरि-कन्दर, पर्वत-प्रांतर।
कौन करे मुझे एकीकृत, मैं ही तो बिखरा इनमें हो तितर-बितर।।
– आईएएस कृष्ण कांत पाठक, वित्त सचिव, राजस्थान