यह सारा ही जीवन है, अंतिम में पछतावों का।
कुछ अपनी भूलों का, कुछ और भुलावों का।।
जो किया, कहा, माना, यह बात दिलासा है,
जीवन की सीख यही, वह पथ है दुहरावों का।
तुम सोच रहे यह पगडंडी, कहीं दूर ले जायेगी,
हर राह लीक है, छल रचती बहुत बुलावों का।
कर जोग-जतन, चिंतन-मंथन, मुक्ति चाह रहे,
क्या अब तक जग मिला नहीं उलझावों का।
हर जोगी भटक रहा, कहीं वह भी अटक रहा,
फिर मोल कहो क्या, उसके उपदेश सुझावों का।
जिसे देख और देखने की चाह बसे, वही प्रीति है,
पर किसी और को देखूँ, यह मोह दिखावों का।
तेरा ना होना मेरे ना होने की शर्त बने भले ही,
दोनों संग-संग ही होंगे, भ्रम यही छलावों का।
मेरा मानस मेरे वश में है, राग-द्वेष में, भ्रांति है,
वश में तेरे प्रेम नहीं, वश कर लो भले दुरावों का।
साधो, तुम बदल गए, गागर भावों का छोड़ चले,
हम सब और न बदलेंगे, सब खेल स्वाभावों का।
– आईएएस कृष्ण कांत पाठक, वित्त सचिव, राजस्थान